जब चली मेरी क़िस्मत मुझे छोड़ कर
जब चली मेरी क़िस्मत मुझे छोड़ कर बाजुओं पर मेरे फिर यक़ीं आ गया। हौसलों से मेरी जो ग़मी हट गयी मेरे उजड़े मकां में मकीं[1] आ गया। हसरतों को मेरी रोज़ ढोता रहा ख़ुद को मैं मिल गया जब यक़ीं आ गया।
यूँ न देखो मुझे आइने में सनम
यूँ न देखो मुझे आइने में सनम,मेरे चेहरे की रंगत संवर जाती है।तुम न गुज़रो मेरे रास्तों से सनम,तेरे साँसों की ख़ुशबू क़हर ढाती है।जो बुलाओ मुझे चाँद कह कर कभी,मेरे चेहरे की लाली ठहर जाती है।पास आओ मेरे साथ बैठो ज़रा,मेरी नासाज़ तबियत सुधर जाती है।एक अरसा हुआ तुमसे बिछड़े हुये,तेरी यादों में जाँ अब निकल जाती है।
तेरे उसूल गुनहगार हैं मेरे बिखर जाने के
तेरे उसूल गुनहगार हैं मेरे बिखर जाने के, तेरे एहसासों के कदरदान हम पहले भी थे। साँस आती थी तेरे पास आने के बाद, ज़िंदगी पे तुम मेहरबान पहले भी
अभी भी वक़्त है, संभल जाओ…!
अभी भी वक़्त है संभल जाओ दर्द का एहसास कब दर्द बन जाय ऐसे गीत मत गाओ अभी भी वक़्त है संभल जाओ गिराने चले हो अपने पडोसी को खुद ही
दर्द है, तो है।
दर्द है, तो है। दुःख क्यूँ? दर्द है, तो है। दर्द नहीं होता, तो सबको नहीं बोलते! दर्द है तो फिर क्यूँ बोलना? दर्द है, तो है। दुःख क्यूँ? ये
Corona से युद्ध
इस अदृश्य शत्रु को,चलो धूल चटाते है।दूरी बना कर, पर एक साथ,चलो corona भगाते हैं।ये युद्ध भी विचित्र है,सामने असली चरित्र है।संवेदना का हथियार लाते हैं,चलो corona भगाते हैं।खलनायक को लात मार,और नायक को पहचान कर।चलो जय-जयकार लगाते हैं,चलो corona भगाते हैं।ये दृश्य विहंगम ना सही,सब प्रश्न अनुत्तरित ही सही।एक दूसरे का साथ निभाते हैं,चलो corona भगाते हैं।
उधार की ज़िन्दगी
मेरी उधार की ज़िन्दगी,कट रही है।बस कट ही रही है!किश्त (दर्द) तो हर रोज़ भरता हूँ,पर कमाल है कि-उधार कम ही नहीं होता!कैसा कर्ज़ है ये कि,कर्ज़ देने वाले को
कैंपस की यादें – एक पुरानी कविता (२००७)
भूले नहीं वो दिन, जब हम ख्वाबों में जिया करते थे,जमीं पर बैठे हुए, चाँद की बातें किया करते थे। दोस्तों के साथ ही अपनी मंज़िल, कारवां सब कुछ नजर आता था उनके साये में
एक पुरानी कहानी
आज फिर वही मेरी कहानी आ गयीकुछ तेरी और कुछ मेरी जुबानी आ गयीलोग हँसते हैं और पूछते हैं वही सवाल -कहो, वो तुम्हारी पुरानी रवानी कहाँ गयी?उधार मांगने को जी चाहता है इस