जो यूँ ही गुज़र जाये वो ज़िन्दगी कैसी?
जो यूँ ही गुज़र जाये वो ज़िन्दगी कैसी? जो दिल से ना आये वो बंदगी कैसी? बात तो तब है जब चर्चे हों ज़माने में, चुप-चाप चले जाने में ताबिंदगी[1]
हम उस समय के पुरवहिया हैं
पूर्वांचल में जब सीधे पल्ले का चलन था, हम उस समय के पुरवहिया हैं। तुमने स्मार्टफोन के जमाने को जाना है, हम अन्तरदेसी के पढ़वहिया हैं। पर हमीं हैं जिसने दोनों जमाने देखे
वो जिसे इश्क़ कहते हैं, ज़िस्मानी नहीं होता
वो जिसे इश्क़ कहते हैं, ज़िस्मानी नहीं होता। वरना फिर कुछ भी हो, वो रूहानी नहीं होता। वो जो दोस्ती में भी ढूंढते हैं फ़ायदे का सौदा, उनके रिश्ते
यही इश्क़ है
ये जो तेरा सर झुका कर शर्माना है, यही इश्क़ है, यही क़ातिलाना है। साँस थम सी गयी एक आहट से, ये तेरा जाना और फिर चले आना है। ओस
मसरूफ़ हो मगर इश्क़ किया करो
कभी यूँ ही बेमतलब साथ दिया करो, मसरूफ़ हो मगर इश्क़ किया करो। उसके जाने से चली जाती है जन्नतें, बेवफ़ा ही सही साथ उसका दिया करो। बरसता है पानी बेशुमार चश्म से मिरे, दर्द
माँ
तुम्हारा अस्तित्व उससे है, तुम्हारा व्यक्तित्व उससे है। वो हर किरदार निभाती है, डाँटती है और संभालती है। वो रोती है तुम्हारे पीछे, सामने तुम्हारे आँखे मींचे। चोट तुम्हारी उसे
तुम भी दोस्त क्या ख़ाक जीते हो
भीड़ में जो इस कद्र तन्हा घूमते हो, तुम भी दोस्त क्या ख़ाक जीते हो। आह भरते ही एहसास बिखर जाते हैं, इतने नाज़ुक से तुम क्यूँ रहते हो। तुम्हारे
चलो दोस्तों को फ़ोन लगाते हैं
चलो दोस्तों को फ़ोन लगाते हैं, कुछ बताते हैं, कुछ सुनाते हैं। वो पिछली छुट्टी का साथ बिताना, वो समंदर के किनारे बैठे गुनगुनाना। वो हँसना और रात भर हँसाना,