बचपन की आरंभिक कविताओं की एक याद ह्रदय के किसी अंश में अब भी तारो ताजा है. यद्यपि, आज की भाग दौड़ भरी जीवन शैली एवं धन की आवश्यकताओं ने उन्हें पुनर्जीवित करने का प्रयास सहज रूप से पीछे छोड़ दिया है. आज बहुद दिनों बाद उन्हीं कुछ कविताओं का स्मरण सा हो आया. मैं उन्हीं कुछ कविताओं को आपके समक्ष पुनः प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ और यह भी समझाने का प्रयास करूँगा की इन कविताओं का तब और अब के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा है:
बीती रात, कमल दल फूले,
उनके ऊपर भंवरें झूलें।
चिड़ियाँ चहक उठी पेड़ों पर,
बहने लगी हवा अति सुन्दर,
नभ में न्यारी लाली छाई,
धरती ने प्यारी छवि पायी।
भोर हुआ सूरज उग आया,
जल में पड़ी सुनहरी छाया।
नन्हीं नन्हीं किरणें आईं,
फूल खिले कलियां मुस्काई,
इतना सुन्दर समय ना खॊओ,
मेरे प्यारे अब मत सॊओ। – Aodhya Singh Upadhyay “Hariaudh”
ये कविता मेरे ह्रदय में इतनी बसी हुई है की, आज भी अक्सर गुगुनाता रहता हूँ, ख़ास कर के तब जब कभी सुबह उठने का अवसर मिलता है। आपको तो पता है की आजकल की सुबह office जाने की तैयारी में ही ख़तम हो जाती और सुबह का विहंगम दृश्य कहीं पीछे ही रह जाता है, परन्तु अगर इस कविता का ही स्मरण कर लिया जाए तो सुबह का एक चित्रण मन मष्तिष्क में हो जाता है।
(२)
नर हो ना निराश करो मन को,
कुछ काम करो, कुछ काम करो.
जग में रह के निज नाम करो,
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो,
समझो जसमे यह व्यर्थ ना हो.
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो ना निराश करो मन को।
संभलो की सुयोग ना जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को ना निरा सपना
पथ आप प्रशश्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
नर हो ना निराश करो मन को।
जब प्राप्त तुम्हे सब तत्त्व यहाँ,
फिर जा सकता वह वह सत्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो ना निराश करो मन को।
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
सब जाए अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे
कुछ हो ना तजो निज साधन को
नर हो ना निराश करो मन को। – Maithili Sharan Gupt
यह कविता बचपन से ही प्रेरणा स्रोत रही है। मुझे तो याद भी नहीं की कितनी बार मैंने यह कविता विद्यालय प्रांगण में सुनाई होगी। मुख्यतया इस कविता की पहली और अंतिम पद मुझे अत्यधिक पसंद हैं। गुप्त जी जिस तरह से ये अभिप्रेरक कविता रचित की है, ये किसी भी मनुष्य को आगे प्रेरित करने के लिए पर्याप्त है।
(३)
वीर तुम बढे चलो, धीर तुम बढे चलो!
हाथ में ध्वजा रहे, बाल दल सजा रहे
ध्वज कभी झुके नहीं, दल कभी रुके नहीं
वीर तुम बढे चलो, धीर तुम बढे चलो!
सामने पहाड़ हो, सिंह की दहाड़ हो
तुम निडर डरो नहीं, तुम निडर डटो वहीं
वीर तुम बढे चलो, धीर तुम बढे चलो!
प्रात हो की रात हो संग हो ना साथ हो
सूर्य से बढे चलो चन्द्र से बढे चलो
वीर तुम बढे चलो, धीर तुम बढे चलो!
एक ध्वज लिए हुए एक प्रण लिए हुए
मात्रि भूमि के लिए पित्री भूमि के लिए
वीर तुम बढे चलो, धीर तुम बढे चलो!
एना भूमि में भरा वारि भूमि में भरा
यत्न्न भर निकाल लो रत्न भर निकाल लो
वीर तुम बढे चलो, धीर तुम बढे चलो! – Dwarika Prasad Maheshwari
(१)
उठो लाल अब आँखें खोलो,
पानी लायीं हूँ, मुह धो लो,
पानी लायीं हूँ, मुह धो लो,
बीती रात, कमल दल फूले,
उनके ऊपर भंवरें झूलें।
चिड़ियाँ चहक उठी पेड़ों पर,
बहने लगी हवा अति सुन्दर,
नभ में न्यारी लाली छाई,
धरती ने प्यारी छवि पायी।
भोर हुआ सूरज उग आया,
जल में पड़ी सुनहरी छाया।
नन्हीं नन्हीं किरणें आईं,
फूल खिले कलियां मुस्काई,
इतना सुन्दर समय ना खॊओ,
मेरे प्यारे अब मत सॊओ। – Aodhya Singh Upadhyay “Hariaudh”
ये कविता मेरे ह्रदय में इतनी बसी हुई है की, आज भी अक्सर गुगुनाता रहता हूँ, ख़ास कर के तब जब कभी सुबह उठने का अवसर मिलता है। आपको तो पता है की आजकल की सुबह office जाने की तैयारी में ही ख़तम हो जाती और सुबह का विहंगम दृश्य कहीं पीछे ही रह जाता है, परन्तु अगर इस कविता का ही स्मरण कर लिया जाए तो सुबह का एक चित्रण मन मष्तिष्क में हो जाता है।
(२)
नर हो ना निराश करो मन को,
कुछ काम करो, कुछ काम करो.
जग में रह के निज नाम करो,
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो,
समझो जसमे यह व्यर्थ ना हो.
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो ना निराश करो मन को।
संभलो की सुयोग ना जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को ना निरा सपना
पथ आप प्रशश्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
नर हो ना निराश करो मन को।
जब प्राप्त तुम्हे सब तत्त्व यहाँ,
फिर जा सकता वह वह सत्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो ना निराश करो मन को।
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
सब जाए अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे
कुछ हो ना तजो निज साधन को
नर हो ना निराश करो मन को। – Maithili Sharan Gupt
यह कविता बचपन से ही प्रेरणा स्रोत रही है। मुझे तो याद भी नहीं की कितनी बार मैंने यह कविता विद्यालय प्रांगण में सुनाई होगी। मुख्यतया इस कविता की पहली और अंतिम पद मुझे अत्यधिक पसंद हैं। गुप्त जी जिस तरह से ये अभिप्रेरक कविता रचित की है, ये किसी भी मनुष्य को आगे प्रेरित करने के लिए पर्याप्त है।
(३)
वीर तुम बढे चलो, धीर तुम बढे चलो!
हाथ में ध्वजा रहे, बाल दल सजा रहे
ध्वज कभी झुके नहीं, दल कभी रुके नहीं
वीर तुम बढे चलो, धीर तुम बढे चलो!
सामने पहाड़ हो, सिंह की दहाड़ हो
तुम निडर डरो नहीं, तुम निडर डटो वहीं
वीर तुम बढे चलो, धीर तुम बढे चलो!
प्रात हो की रात हो संग हो ना साथ हो
सूर्य से बढे चलो चन्द्र से बढे चलो
वीर तुम बढे चलो, धीर तुम बढे चलो!
एक ध्वज लिए हुए एक प्रण लिए हुए
मात्रि भूमि के लिए पित्री भूमि के लिए
वीर तुम बढे चलो, धीर तुम बढे चलो!
एना भूमि में भरा वारि भूमि में भरा
यत्न्न भर निकाल लो रत्न भर निकाल लो
वीर तुम बढे चलो, धीर तुम बढे चलो! – Dwarika Prasad Maheshwari
इस कविता को मै कैसे भूल सकता हूँ। मुझे आज भी स्पष्ट रूप से याद है, मै 2nd class में था और मेरे विद्यालय ने निश्चित किया की १५ अगस्त के दिन प्रभात फेरी का प्रतिनिधित्व मै करूंगा। मै बहुत खुश हुआ था। यही कविता प्रभात फेरी में गाई गयी थी। मै एक पंक्ति बोलता था और सारे बच्चे उसी पंक्ति को दुहराते थे. एक अजाब ही उत्साह था, मै तिरंगा हाथ में लिए हुए और मुरी ऊर्जा के साथ बोलते हुये – वीर तुम बढे चलो, धीर तुम बढे चलो!
मै इस post को यहीं पर विराम देता हूँ। यादें तो बहुत सारी हैं, बाकी कविताओं को फिर कभी आपके पास लेकर आऊंगा।