अश्क़ सूख गए कुछ इस तरह,
सोचते-सोचते हो गयी सहर।
ख़ुश्क़ आँखों ने फिर पूछा मुझे,
दिन गुज़ारना है अब किस तरह।
सोचते-सोचते हो गयी सहर।
ख़ुश्क़ आँखों ने फिर पूछा मुझे,
दिन गुज़ारना है अब किस तरह।
हर रोज़ कुछ हाल ऐसा ही है,
मन में सवाल कुछ ऐसा ही है।
ये इश्क़ और मुहब्बत नहीं हैं यारों,
मेरे बेहाल देश का ख्याल ऐसा ही है।
आज कल सूरज कुछ ऐसे निकलता है,
कि इसकी रौशनी में भी धुंधला सा दिखता है।
ठंढ तो अब भी है हवा में पुरानी जैसी ही,
पर सियासती गर्मी का असर दिखता है।
क्या यही देश कि प्रगति कि निशानी है?
क्या यही हमारे उदय कि कहानी है?
क्या ऐसे ही उत्थान करेंगे हम?
क्या यही हम सब ने मिलकर ठानी है?
गर नहीं, तो ये समय है जागने का,
देखने का, सोचने का, और कुछ कर गुज़रने का।
आपस के मतभेदों से ऊपर उठने का,
और एक खूबसूरत भारत देश बनाने का।