वह काम कर बुलन्द हो जिससे मजाके-जीस्त,
दिन जिन्दगी के गिनते नही माहो-साल में।
किसी के काम न जो आए वह आदमी क्या है,
जो अपनी ही फिक्र में गुजरे, वह जिन्दगी क्या है?
शिकवा किया था अज़ रहे-उल्फ़त, तंज़ समझकर रूठे हो
हम भी नादिम अपनी ख़ता पर, आओ, तुम भी जाने दो।
ख्वाब बुनिए, खूब बुनिए, मगर इतना सोचिए,
इसमें है ताना ही ताना, या कहीं बाना भी है।
उनके आने की बंधी थी आस जब तक हमनशीं,
सुबह हो जाती थी अक्सर जानिबे – दर देखते।
किससे कहिए और क्या कहिए, सुनने वाला कोई नहीं,
कुछ घुट-घुट कर देख लिया, अब शोर मचाकर देखेंगे।
दिन जिन्दगी के गिनते नही माहो-साल में।
किसी के काम न जो आए वह आदमी क्या है,
जो अपनी ही फिक्र में गुजरे, वह जिन्दगी क्या है?
शिकवा किया था अज़ रहे-उल्फ़त, तंज़ समझकर रूठे हो
हम भी नादिम अपनी ख़ता पर, आओ, तुम भी जाने दो।
ख्वाब बुनिए, खूब बुनिए, मगर इतना सोचिए,
इसमें है ताना ही ताना, या कहीं बाना भी है।
उनके आने की बंधी थी आस जब तक हमनशीं,
सुबह हो जाती थी अक्सर जानिबे – दर देखते।
किससे कहिए और क्या कहिए, सुनने वाला कोई नहीं,
कुछ घुट-घुट कर देख लिया, अब शोर मचाकर देखेंगे।