हिज्र का वक़्त हैफिर मिलें ना मिलें
इक हर्फ़ ही सहीथोड़ा तो गुनगुना दे!
तिरा ख़ंजर मिल गया यूँ मिरी पीठ से 
झूठा ही सहीचंद अश्क़ तो बहा दे।
ज़मानतों पर रिहा अब ज़िंदगी अपनी
जो भी करचल फ़ैसला तो सुना दे।
ऐसा क्यूँ कि लहू बिखरा है मैदानों में
कमसेकम इश्क़ वाली हवा तो चला दे।
तू आयाठहरा और फिर चल दिया
जा मगर अपनी यादों को तो ठहरा दे।


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