जब धरा पर आंच आयी, वीर वो आगे बढ़े
जब धरा पर आंच आयी,वीर वो आगे बढ़े।दुश्मनों के पैर
जब धरा पर आंच आयी,वीर वो आगे बढ़े।दुश्मनों के पैर
हम अक्स ढूँढते रहे उनके चेहरे में,वो हाथ फेरते रहे उनके चेहरे में।दिया था, बुझ गया यूँ ही मगर,तूफ़ान ढूँढते रहे उनके चेहरे में।ज़माने में हज़ार रंग बिखरे हुए से हैं,हम रंग ढूँढते रहे उनके चेहरे मेंदे दिया मात समंदर को भी, मगरडूब ही गये हम उनके चेहरे में।चलो दूर
हिज्र का वक़्त है, फिर मिलें ना मिलेंइक हर्फ़ ही सही, थोड़ा तो गुनगुना दे!तिरा ख़ंजर मिल गया यूँ मिरी पीठ से झूठा ही सही, चंद अश्क़ तो बहा दे।ज़मानतों पर रिहा अब ज़िंदगी अपनीजो भी कर, चल फ़ैसला तो सुना दे।ऐसा क्यूँ कि लहू बिखरा है मैदानों मेंकम-से-कम इश्क़ वाली हवा तो चला दे।तू आया, ठहरा और फिर चल दियाजा मगर अपनी यादों को तो ठहरा दे।
रक्त में उबाल है, और हृदय में उद्वेग।मज्जा है कशेरुकाओं में,और शिराओं में वेग।ये प्रमाण हैं-हमारे सजीव होने का।पर क्या हम अभिज्ञ हैं?या मात्र सजीव?इन दोनो प्रश्नों में निहित है-अस्तित्व या अस्तित्व-विहीन होने की परिभाषा।