वो जिसे इश्क़ कहते हैं, ज़िस्मानी नहीं होता।
वरना फिर कुछ भी हो, वो रूहानी नहीं होता।
वो जो दोस्ती में भी ढूंढते हैं फ़ायदे का सौदा,
उनके रिश्ते में फिर कभी ताबानी[1] नहीं होता।
बात तो तब बने जब ग़ैर का दर्द अपना हो,
ख़ुदी को देखना, ता’लीम-ए-रूहानी[2] नहीं होता।
औरों को इज़्ज़त बख्शना ता’लीम है हमारी,
हर किसी को ग़ुरूर दिखाना इंसानी नहीं होता।
ज़िन्दगी हर किसी की होती है अहम “राहुल”,
कोई ता-ज़िन्दगी किसी का ज़िंदानी[3] नहीं होता।
1: नूर, चमक; 2:आध्यात्मिक शिक्षा; 3: कैदी, बंदी